राजधानी देहरादून में काले कानून बिरोधी प्रदर्शन AIKS

Kishan Sabha Akhil Bhartiya

 
देहरादून 25 सितंबर 2020:-  को सुरेंद्र सिंह सजवाण अध्यक्ष, किसान सभा अखिल भारतीय आह्वान पर मोदी सरकार की किसान विरोधी नीतियों तथा काले कानूनों के विरोध में आज राजधानी देहरादून में अखिल भारतीय किसान सभा AIKS, सीटू ,एस एफ आई , इंटक ,एटक ,इफ्टू, सर्वोदय मण्डल, भूतपूर्व सैनिक संगठन ,वनगुजर श्रमजीवी यूनियन ,स्वराज अभियान,भूमिहीन संघर्ष समिति,एलआईसीयूनियन, के तत्वावधान भी बडी़ संख्या में इन संगठनों से जुडे़ कार्यकर्ता राजपुर रोड़ से होते हुए.
गांधी पार्क जलूस के शक्ल में पहुंचे जहाँ मोदी सरकार के काले कानून के विरोध में जोरदार नारेबाजी की तथा काले कानून वापस लेने की मांग की ।इस अवसर पर वक्ताओं ने निम्न बिन्दुओं पर अपनी बातें रखी

  •  देश की खेती किसानी के लिए ठीक इसी तरह की काशी करवट का एक प्रबंध लेकर मोदी सरकार आ गयी है। काशी करवट का यह मोदी मॉडल तीन जून को मोदी कैबिनेट द्वारा आनन फानन में पारित किये वे तीन अध्यादेश हैं जिन्हे  5 जून को राष्ट्रपति ने अपना ठप्पा लगाकर जारी कर दिया है और पालतू और पुंछल्ला मीडिया और आरएसएस  का अफवाह फैलाओ गिरोह उस उपक्रम से जुड़े ठग पण्डों  की तरह इन अध्यादेशों को किसानी की कायापलट करने वाला बताने में भिड़ गया । अब बिना बहस कराये धींगामुश्ती से इन्हें संसद में पास करा लिया गया ।
  • जबकि असल में ये तीनो अध्यादेश आजादी के बाद देश की खेती किसानी और नागरिकों की खाद्य सुरक्षा पर हुए संबसे भीषण हमले हैं।  इनकी तकनीकी भाषा - परिभाषा और उसकी शातिर व्याख्या में जाए बिना भी समझा जा सकता है कि इनके कितने भयानक असर होने वाले हैं। 
    पहला_कानून मण्डी और एमएसपी का पिण्डदान;
     खरीद सूदखोर व्यापारियों के हवाले कर सही दाम की गारंटी समाप्त
    • किसानों की उपज, व्यापार तथा वाणिज्य (प्रोत्साहन) तथा सरलीकरण अध्यादेश 2020 उपज की सीधी खरीदी की पूरी छूट देता है। इस काशी करवट के पण्डे बता रहे हैं कि इसका फायदा किसान को होगा - लुधियाना का किसान चेन्नई और मुरैना का किसान बैंगलोर जाकर अपनी फसल बेच सकेगा। अपने गाँव से कृषि उपज मंडी तक फसल को ले जाने के लिए ट्रैक्टर-ट्रॉली का जुगाड़ करने में जिस किसान के पसीने निकल आते हैं , उसका गणित गड़बड़ा जाता है उसे बैंगलोर और चेन्नई की मण्डी का झांसा देना  एक बेहूदा मजाक के सिवा कुछ नहीं है।  
    • इसका असली मतलब यह है कि बड़े आढ़तिये और कारपोरेट कंपनियां अब सीधे गाँव  में जाकर फसल खरीद सकेंगी। देश भर में कहीं भी जाकर खरीदारी कर सकेंगी। अपने धनबल की दम पर उपज खरीदी पर अपना एकाधिकार बना लेंगी । उसके बाद किसानो की लूट का आलम क्या होगा ये पिछली पीढ़ी जानती है कि किस तरह सूदखोर व्यापारी किसानों को अपने फंदे में फंसाता था और औने पौने दाम पर सारी उपज ही नहीं खरीद लेता था - धीरे धीरे उसकी जमीन भी हड़प जाता था। 

    •  साठ के दशक में जाकर इसे कुछ हद तक बदला गया।  किसानो के वोटों के जरिये चुनी कृषि उपज मंडियाँ बनाने , फसल को मण्डी प्रांगण में बोली लगाकर प्रतियोगितात्मक तरीके से तय हुयी अधिकतम कीमत पर बेचने और सही कीमत न मिलने पर सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने के बंदोबस्त हुए। ठीक है उस पर जितना प्रभावी अमल होना चाहिए था वह नहीं हुआ।   मगर  मोदी का अध्यादेश तो अब इस बची खुची गुंजाइश को ही पूरी तरह समाप्त कर देता है।  इस अध्यादेश की नीयत क्या है इसे इसके दो प्रावधानों से समझा जा सकता है। 
     
     अध्यादेश के अनुसार इस तरह की खरीदारी करने वाली कंपनियों और व्यापारियों पर किसी भी तरह  का टैक्स नहीं लगाया जाएगा और उनकी खरीदारी में होने वाले घपले या बेईमानी को लेकर कोई विवाद उत्पन्न होता है तो राज्य सरकारें उसमे कुछ नहीं कर सकेंगी।  नौकरशाह उन विवादों का समाधान करेंगे और वह भी केंद्र सरकार के निर्देशों के आधार पर कर सकेंगे।  साफ़ अर्थ है कि कृषि के राज्य का विषय होने के बावजूद न राज्य की  भूमिका होगी ना ही लोकतांत्रिक तरीको से निर्वाचित सरकारों की कोई हैसियत होगी।  
    दूसरा_कानून
     ठेका खेती को अभयदान  के साथ खुला मैदान ;
    मूल्य आश्वस्ति तथा कृषि सेवाओं संबंधी किसानों का (सशक्तीकरण तथा संरक्षण) समझौता अध्यादेश 2020  इससे भी आगे की - पूरे देश में ठेका खेती लाने की - बात करता है। 
     
    इसका कितना विनाशकारी और दूरगामी असर होगा इसे अंग्रेजी राज के तजुर्बों और अठारहवीं सदी में जबरिया कराई गयी नील की उस खेती के अनुभव से समझा जा सकता है

     जिसके नतीजे में लाखों एकड़ जमीन के बंजर होने और दो दो अकालों के रूप में इस देश ने देखे और भुगते  है।  इसमें राज्य सरकारों के पास  ठेका खेती की अनुमति देने या न देने का विकल्प भी नहीं है - उनका काम आँख बंद करके केंद्र सरकार के हुकुम को लागू करना है।  कंपनियों और ठेका खेती कराने वाले धनपतियों की सुरक्षा और संरक्षण के ऐसे ऐसे प्रावधान इस अध्यादेश में किये गए हैं
     
     जो शायद ही किसी और मामले में हों।  अध्यादेश के मुताबिक़ कम्पनी की किसी भी गड़बड़ी या उसके और किसान के बीच उत्पन्न विवाद पर अदालतें सुनवाई तक नहीं कर सकेंगी।  जो भी करेगा वह कलेक्टर और एसडीएम जैसा नौकरशाह करेगा - और वह भी वही करेगा जैसा करने के निर्देश उसे सीधे केंद्र सरकार द्वारा दिए जाएंगे।   
    तीसरा_कानून
    जमाखोरी, मुनाफाखोरी, कालाबाजारी की खुली इजाजत 
    मोदी सरकार किसानो की निर्बाध लूट से कारपोरेट कंपनियों और व्यापारियों को कराये जाने वाले मुनाफे और कमाई को पर्याप्त नहीं मानती।  इसलिए वह एक और अध्यादेश - आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश 2020 - भी लेकर आयी है।  यह किसी को भी कितनी भी तादाद में अनाज और खाद्यान्न की जमाखोरी करने की छूट देता है।  यह अध्यादेश जिस क़ानून को हटाता है वह आवश्यक वस्तु क़ानून इसलिए लाया गया था ताकि मुनाफाखोर सस्ते में खाद्यान्न खरीद कर उसकी जमाखोरी न कर सकें।  नकली कमी और किल्लत पैदा कर अपने गोदामों में जमा माल की कालाबाजारी न कर सकें और जनता को भुखमरी का शिकार न होना पड़े।
     
    •  इसे हटाकर मोदी सरकार ने गोदाम में स्टॉक जमा करने की सीमा ही समाप्त कर दी है ; जमाखोरी करने की छूट कंपनी, आढ़तिये , ट्रांसपोर्टर्स, थोक व्यापारी यहां तक कि कोल्ड स्टोरेज मालिकों सहित सबको दे दी है।  यह छूट अनाज, दाल, तिलहन, तेल, आलू और प्याज पर लागू होगी - मतलब किसान को लूटने के बाद अब नागरिकों की रोटी सब्जी, दाल भात छप्परफाड़ मुनाफे का जरिया बनायी जाएगी।
    • जमाखोरी मुनाफ़ाखोरी को छुट्टा छोड़ने के मामले में यह अध्यादेश बाकी दोनों अध्यादेशों से भी चार जूते आगे है , यह खुद सरकार के हस्तक्षेप की भी सीमा बांधता है और कहता है कि जमाखोरी की सीमा तय करने के बारे में सरकार तभी विचार कर सकती है जब जल्दी खराब होने वाली (पेरिशेबल) वस्तुओं जैसे आलू, प्याज, तेल आदि की कीमतों के दाम 100 प्रतिशत और खाद्यान्नों के दाम 50 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ जाएँ। इस सीमा में बढ़ते हैं तो सब चंगा है - अम्बानी की रिलायंस की कठौती ही गंगा है।   
    चौथा_हमला
     बिजली सब्सिडी के खात्मे की तैयारी ;
    •  इस तरह संसद को भरोसे में लिए बिना, किसानो के लिए नीति बनाने के प्रदेश सरकारों  के संविधान प्रदत्त अधिकारों को हड़पकर, संघीय प्रणाली को ध्वस्त कर लाये गए ये तीनो अध्यादेश देश की खेती और किसानी तथा नागरिकों की खाद्य सुरक्षा के अधिकार को चौपट करने वाले अध्यादेश हैं। 
     यह कार्पोरेटी हिन्दुत्व के भस्मासुर का खेत और भोजन की थाली पर रखा गया हाथ है - मगर वह इतने भर से संतुष्ट नहीं है। खेती किसानी के बचने की कोई गुंजाइश तक न बचे इसके लिए बिजली क़ानून 2003  की धारा 62 और 65 में संशोधन कर दिया गया है।
       
    जिसका सीधा मतलब यह है कि अब नियामक आयोगों द्वारा खेती के लिए बिजली की दरें बाकी बिजली दरों की तुलना में कम करके तय नहीं की जा सकेगीं।  जो भी छूट दी जाएगी वह कंपनी को दी जाएगी - वह किसान को दे या न दे यह उसकी मर्जी। 
     
    हो सकता है इसे अगली कुछ वर्षों के लिए डायरेक्ट कॅश ट्रांसफर का मुलम्मा चढ़कर दिखाया जाए, किन्तु अंतिम निष्कर्ष में यह बाकी सब्सिडियों को छीन लेने के बाद बिजली की सब्सिडी छीन लेना है।  
    यह सब उस देश में 

    • जहां खेती पहले से ही अभूतपूर्व संकट की चपेट में है, जहां  85 प्रतिशत किसान लघु या सीमान्त किसान है ।  आधी ग्रामीण आबादी भूमिहीन या खेत मजदूर है और 1991 से 2011 के बीच सरकार की नीतियों से आजिज आकर, खेती किसानी के घाटे के चलते डेढ़ करोड़ वयस्कों ने खेती छोड़ दी।  हर रोज 2500 किसान किसानी छोड़ रहे हैं। हर दिन करीब दर्जन भर किसान आत्महत्या कर रहे हैं।  
    •  कारपोरेटी हिन्दुत्व की महामारी का अवसर
    •  कोरोना महामारी में ठीक जिस समय खेती किसानी को संरक्षण और समर्थन की आवश्यकता थी - उसे कारपोरेट मुनाफों के लिए खोला जा रहा है ।  महामारी में अवसर ढूंढ़ने के फलसफे को अमरीका की हावर्ड यूनिवर्सिटी के जॉन ऍफ़ केनेडी स्कूल ऑफ़ गवर्नमेंट से रिफ्रेशर कोर्स करके लौटे, भारत में प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी (एफडीआई) की पालकी के कहार,  मोदी के नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कान्त ने "अभी नहीं तो कभी नहीं"  के पल-क्षण बताया और फ़रमाया कि जिन बदलावों को सामान्य समय में नहीं लाया जा सकता यह उसके लिए सबसे अनुकूल समय है।  अमरीका और देसी कारपोरेटों के पेट की तरफ मुड़ने वाले घुटने के रूप में मशहूर पत्रकार शेखर गुप्ता ने इसे थोड़ा और सपाटबयानी के साथ दोहराया है कि "कृषि और अन्य क्षेत्रों में बड़े सुधार अब लॉकडाउन के दौर में आसानी से किये जा सकते हैं।"  क्योंकि इसके विरोध में कोई आंदोलन हो ही नहीं पायेगा।   
     
    • कार्पोरेटी हिंदुत्व के झण्डाबरदार सबसे पहले मजदूर के लिए आये, उसके काम के घंटे, न्यूनतम वेतन और सेवा सुरक्षा सहित उसके सारे अधिकार स्थगित या समाप्त कर दिए।  फिर कोरोना तानाशाही के बूटों से लोकतांत्रिक  अधिकारों को रौंदा, असहमति को कुचला और जेल में डाला ; उसके बाद अब वे किसानो के लिए आये हैं। मगर इस बार में नागरिक के भोजन और जीवन के अधिकार को छीनने वाली तिकड़म के साथ आये हैं।  इस लिहाज से यह किसान मजदूरों की मैदानी एकता को ऊंचाई तक पहुंचाने और उसे नागरिक समाज की लड़ाई बनाने का सबसे जरूरी समय है।  
    इस अवसर पर किसान सभा के प्रदेश अध्यक्ष सुरेंद्र सिंह सजवाण ,महामंत्री गंगाधर नौटियाल ,पूर्व मन्त्री हीरासिंह बिष्ट ,सीटू के अध्यक्ष राजेंद्र सिंह नेगी ,सचिव लेखराज ,इफ्टू के इन्देश मैखुरी ,पूर्व आई ए एस एस  एस पांगती ,कमला पन्त ,अशोक शर्मा ,बच्चीराम कौसवाल ,हरवीर कुशवाहा ,मुस्तफा अरोड़ा ,नवीन गैरोला ,राजेन्द्र पुरोहित ,अनन्त आकाश ,नितिन मलेठा ,हिमांशु चौहान,अमन कंडारी, सुमन, सुंदर बगियाल,नासिर कुहमी,मोहित,मनीष,भगवन्त पयाल,रविन्द्र नौडियाल ,अर्जुन रावत ,रामसिंह भण्डारी ,सतीश धौलाखण्डी ,भार्गव चन्दोला ,निरलेश ,मोनिका ,सुमित्रा ,बबीता ,नन्द लाल,तन्मय मंमगाई., विनोद खण्डूड़ी ,शैलेंद्र ,मनोज ,महेंद्र ,शेरसिंह राणा, देवराज ,नरेन्द्र ईश्वर पाल सिंह आदि बडी़ संख्या में लोग शामिल थे ।


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